लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
मैंने इस शहर में बीस-पच्चीस लोगों के जुलूस के पीछे, दो ट्रक भरकर पुलिस जाते देखा है! इसी शहर में ही जन्माष्टमी के मौके पर पच्चीस हज़ार लोगों के जुलूस के आगे-पीछे कुल दो पुलिस वैन देखा था। उस जुलूस की तुलना में पुलिस की संख्या मामूली ही थी। इस जुलूस पर युव कमांड और बी. एन. पी. की लठैत फौज ने हमला कर दिया। औरतों की साडियाँ उतार दीं। किसी-किसी का सिर तोड दिया. जो बच्चा 'कृष्ण' सजा था, उसका भी सिर फाड़ दिया। जुलूस तितर-बितर हो गया। आँखों के सामने ही कितने सव कांड घटते रहते हैं और हम इन सव वीभत्सता के खिलाफ एकजुट न होकर, तितर-बितर हो जाते हैं। हम इधर-उधर बिखर जाते हैं और डर के मारे अपने-अपने घरों में मुँह छिपा लेते हैं। ताकि हमारी पीठ पर सरकारी संत्रासवादियों की लाठी न पड़े। हम सब, जो अखबारों, सभा-सेमिनारों में लच्छेदार खूबसूरत बातें करते हैं, अपनी पीठ भी बखूबी बचाना जानते हैं! चूँकि हम अपनी पीठ बचाना जानते हैं इसलिए इस देश में असाम्प्रदायिक लोगों की बहुतायत होने के बावजूद, हम इकट्ठे नहीं हो पाते। हम एक लाख लोग, डरे-सहमे-से दस लोगों के पीछे-पीछे चलते फिरते हैं। हम दस लाख युक्ति-बुद्धि विवेकवान लोग। सौ संन्यासी के दाँव-कटार और लाठी के खौफ से दौड़ते फिरते हैं।
इसी किस्म के और एक जुलूस का ख्याल आता है-जूसम में जुलूस का मजमा! जन्माष्टमी की तरह, यह भी किसी का जन्मोत्सव है। हयबत मुहम्मद के जन्मोत्सव के जुलूस पर भी अगर ऐसा हमला होता। उस जुलूस में अगर और लोग इस टोपी फौज की टोपी-कुर्ता पायजामा उतार लें, तो कैसा लगेगा? जो लोग तमाचा जड़ते हैं, असल में उन लोगों को भी तो पता चले कि तमाचा खाना कैसा लगता है। वैसे उन लोगों को भी दोष देकर क्या फायदा? कुरान में ही लिखा है-'विधर्मियों के साथ मेलजोल मत रखो; विधर्मियों का संगसाथ त्याग करो।' कुरान का यह उपदेश तो उन लोगों को मानना ही होगा। इसीलिए वे लोग साम-दाम दंड-भेद से विधर्मियों पर आघात हनते हैं। यह बात बिल्कुल सच है कि जब तक धर्मआधारित दलों को निषिद्ध घोषित न किया गया और सेकुलर राष्ट्र की प्रतिष्ठा न की गई, तब तक सभ्यता और इंसान-इंसान में समानता अर्जित करना, संभव नहीं होगा।
बहुत से लोग यह सवाल भी करते हैं कि हिंदू लोग भारत क्यों जा रहे हैं? वे लोग इसी देश में रहें और लड़ते-जूझते जिंदा रहें! जैसे भारत में संख्यालघु मुसलमान जंग कर रहे हैं। विल्कुल वैसे ही। लेकिन यह महज वकवास है! संख्यालघु सिर्फ उसी देश में जंग कर सकते हैं जिस देश में सेकुलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता हो! किसी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में संख्यालघु संप्रदाय किसी भी तरह का जुलूस निकाल सकता है। किसी भी माँग के साथ वे लोग सड़कों पर उतर सकते हैं। उनके आंदोलन का एक स्वीकारात्मक पक्ष भी है। लेकिन कोई एक विशेष धर्म. अगर जाति धर्म के तौर पर बहाल रहे, तो हमेशा से ही यह होता आया है कि वह विशेष धर्म उन लोगों के सिर पर लाठी बरसाएगी, जो इस धर्म को नहीं मानते। सत्ताधारी धर्म, अन्यान्य धर्मों के लोगों को खुलेआम नंगा करेगा, उन लोगों के घर-मकान लूटेगा, उनकी दुकानपाट में तोड़-फोड़ करेगा, हर कहीं आग लगाता फिरेगा। ऐसा वह करेगा ही करेगा, क्योंकि देश उन्हें बढ़ावा देता है। देश का प्रोत्साहन पाकर, क्षमतावान धर्मावलंबी लोग, संख्यालघु संप्रदायों को जलाकर खाक कर देंगे। मुझे ताज्जुब होता है कि जिन लोगों ने जन्माष्टमी के जुलूस पर हमला बोला था, उनमें से किसी को भी पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया; दिखावे की गरज से भी गिरफ्तार नहीं किया। सरकार ने अगर यह कबूल किया है कि जन्माष्टमी के जुलूस पर हमला हुआ था, तो क्या वजह है कि एक भी हमलावर पकड़ा नहीं गया? राष्ट्र हमें आखिर कितनी शर्मिंदगी देगा? मारे शर्म के हमें अपना चेहरा छिपाना पड़ता है; मारे शर्म के हम लोग कछुए की तरह सिमटे रहते हैं। जो लोग इस राष्ट्र को गणतांत्रिक समझते हैं, मेरा मन उन्हें धिक्कार भेजता है। धर्मनिरपेक्षता गणतंत्र की पहली शर्त है। यह शर्त अगर पूरी न हो, तो गणतंत्र का नाम धारण करने का मतलब होगा, जनता को वेवकूफ बनाना। मनमानी करने की एक सीमा होती है! यह सरकार वह सीमा तोड़ चुकी है। ऐसी मनमानी के खिलाफ सन् नब्बे में जो जन-जागरण हुआ था, वैसे ही किसी जन-जागरण की इन दिनों ज़रूरत है। एक सेकुलर राष्ट्र के लिए हम सबका सड़कों पर उतरना जरूरी हो आया है।
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